वुड बेस्ड इंडस्ट्री के प्रस्तावित दिशानिर्देश फैसिलिटेशन के साथ रेगुलेशन हैं

Thursday, 11 May 2023

वुड बेस्ड इंडस्ट्री के प्रस्तावित दिशानिर्देश 2022 में कई अलग-अलग नए प्रावधान हैं जो 2016 के मौजूदा दिशानिर्देशों की तुलना में बहुत व्यापक हैं। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि नए दिशानिर्देश केवल 2016 के दिशानिर्देशों के विनियमन के बजाय सुविधा की भी बात करता है। नये प्रस्ताव में मैन्युसिपल एरिया, वुड कौंसिल, टीओएफ, एग्रीवुड, इम्पोर्टेड वुड, वुड चारकोल, टिम्बर ग्रोअर, व्यापारी या एजेंट, अंतर-राज्य व्यापार, इलेक्ट्रॉनिक ट्रेड और लेनदेन के प्लेटफार्म, ट्रेड एरिया, प्रायोजक, कृषि समझौता, लोकल बॉडी आदि का उल्लेख किया गया है। इंडस्ट्रियल एस्टेट का मतलब राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन द्वारा वुड बेस्ड इंडस्ट्री की स्थापना के लिए अधिसूचित क्षेत्र हैं। पहले के दिशानिर्देशों में इनमे कई परिभाषित नहीं थी। इसमें राज्य सरकारों या केंद्र शासित प्रदेशों और छावनी बोर्डों द्वारा अधिसूचित जिला, तहसील, अंचल या ब्लॉक मुख्यालय भी शामिल हैं। नई गाइडलाइन में राष्ट्रीय स्तर, राज्य और जिलाध्क्षेत्रीय स्तर पर एडवाइजरी कौंसिल का प्रस्ताव है।

नए प्रस्ताव में टीओएफ के लिए एक अलग केटेगरी के रूप में और फारेस्ट वुड को अलग कर दिया गया है, जबकि 2016 के दिशानिर्देश में फारेस्ट या एग्रीकल्चर एरिया से सभी टिम्बर एक ही केटेगरी के अंतर्गत हैं। नए प्रस्तावित दिशानिर्देश कहते हैं कि टीओएफ या आयातित वुड से कच्चे माल पर आधारित उद्योग लाइसेंसिंग से मुक्त होंगे और इन उद्योगों को केवल ऑनलाइन पंजीकरण की आवश्यकता होगी। ऐसे उद्योगों के लिए टिम्बर की उपलब्धता के आकलन की आवश्यकता नहीं है, बशर्ते वे कानूनी स्रोतों से लकड़ी की खरीद के बारे में प्रमाण इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रदर्शित करें।

नए प्रस्तावित दिशा-निर्देशों में राज्य स्तरीय समिति (शक्तियाँ एवं कार्य) की महत्वपूर्ण भूमिका है। 2016 के दिशानिर्देशों में केवल फार्म वुड (प्लाईवुड/एमडीएफ/पार्टिकल बोर्ड) का उपयोग करने वाले उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग के संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन नए प्रस्तावित दिशानिर्देशों में विनियर, प्लाईवुड, एमडीएफ, पार्टिकल बोर्ड, पल्प और पेपर, और ऐसे अन्य उद्योग जो मुख्य रूप से कच्चे माल के रूप में ‘एग्री वुड‘ या ‘इमपॉपरटेड वुड‘ का उपयोग करते हैं उनके लिए लाइसेंसिंग की कोई आवश्यकता नहीं है।

नए प्रस्ताव में कहा गया है कि वुड बेस्ड इंडस्ट्री को राज्य/ केंद्र शासित प्रदेश वन विभाग के पास पंजीकृत किया जाएगाय और उनके द्वारा खरीदे गए और उपयोग किए गए लकड़ी के स्व-सत्यापित रिटर्न को ऐसे अंतराल पर ऐसे ऑनलाइन इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में प्रस्तुत करना आवश्यक होगा जो राज्य/ केंद्र शासित प्रदेश वन विभाग निर्धारित करेगा। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (उत्तर पूर्वी राज्यों के अलावा) में, निकटतम अध् िासूचित वनों या संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से दूरी के संबंध में, वुड बेस्ड इंडस्ट्री को माननिये सर्वोच्च न्यायालय/माननीय उच्च न्यायालय/केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति/राज्य-विशिष्ट आदेश के अनुमोदन के अनुसार संचालित करने की अनुमति दी जाएगी।

राज्य स्तरीय समिति (संरचना) के संदर्भ में पीसीसीएफ (एचओएफएफ) के अध्यक्ष होने के संबंध में संरचना में अस्पष्टता है, साथ ही समिति में एमओईएफसीसी के क्षेत्रीय कार्यालय का प्रतिनिधित्व है और उद्योग तक सीमित है जिसमें कृषि क्षेत्र का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। जबकि नए प्रस्तावित दिशानिर्देशों में पीसीसीएफ के रैंक के किसी भी अधिकारी को अध्यक्ष के रूप में अधिसूचित किया जा सकता है, एमओईएफसीसी का प्रतिनिधित्व व्यापक किया गया है क्योंकि एमओईएफ-सीसी से कोई भी नॉमिनेटेड व्यक्ति पर्याप्त है, डब्ल्यूबीआई के प्रतिनिधियों को व्यापक किया गया है और कृषि विभाग के सदस्य के रूप में कम से कम दो निदेशकों को प्रस्तावित किया गया है ।

2016 के दिशानिर्देशों में राज्य स्तरीय समिति (अपील) के संदर्भ में राज्य स्तरीय समिति द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय से असंतुष्ट होने पर 60 दिनों के भीतर उपयुक्त राहत की मांग करते हुए एमओईएफ-सीसी में केंद्र सरकार के संबंधित क्षेत्रीय कार्यालय के समक्ष अपील दायर कर सकती है।श् इससे हितों का टकराव होता है और एसएलसी की अधीनता होती है और इसमें कोई समीक्षा प्रावधान भी नहीं है, जबकि नए प्रस्तावित दिशानिर्देशों में तीस (30) दिनों की अवधि के भीतर एमओईएफ-सीसी की संबंधित क्षेत्रीय अधिकार प्राप्त समिति (आरईसी) के समक्ष अपील करने का प्रावध् ाान है। आरईसी के निर्णय को फाइलिंग के तीन (3) महीनों के भीतर पीड़ित को सूचित किया जाएगा और ऐसे निर्णय के खिलाफ संशोधन का प्रावधान है जो अतिरिक्त महानिदेशक (वन संरक्षण), एमओईएफसीसी के समक्ष होगा।

पंजाब, यूपी और असम जैसे राज्यों के वुड बेस्ड इंडस्ट्री के प्रतिनिधि ने यह स्पष्ट किया कि उद्योगों में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी कृषि भूमि से आती है, इसलिए यह एग्रीकल्चर वुड है, और एग्रो फॉरेस्टरी के लिए विशेष प्रावधान लाने कंा आग्रह किया। उन्होंने ऐसी लकड़ी पर निर्भर उद्योगों के लिए छूट और इसके स्टेकहोल्डर्स के लिए एक राष्ट्रीय मंच की मांग की। राज्यों, किसान संघों और एक शोध संस्थानो ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम किया और मुद्दों पर विचार-विमर्श किया। फिर, सरकार द्वारा कुछ मुद्दों को हल करने का भी प्रस्ताव किया जा रहा है खासकर उद्योग और एसएलसी से संबंधित मुद्दों के संबंध में।

इस नए वुड बेस्ड इंडस्ट्री गाइडलाइन्स में कई पहलुओं को शामिल किया गया है, जैसे कि नगरपालिका का क्षेत्र और वुड कौंसिल की अवधारणा, ट्री आउट ऑफ फारेस्ट, इम्पोर्टेड टिम्बर, लकड़ी का कोयला, टिम्बर प्लांटर्स, व्यापारी और एजेंट, अंतरराज्यीय व्यापार, इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रॉनिक व्यापार और परिवहन इत्यादि, जो इन दिनों तेजी से महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। इनमें से कई पिछले दिशानिर्देशों में नहीं देखा गया था। उद्योग समूहों ने इस नए गाइडलाइन्स पर अपनी राय दी, और कुछ बदलावों का सुझाव दिया है ताकि उन्हें उद्योग के लिए अधिक प्रासंगिक और सहायक बनाया जा सके।

श्री सज्जन भजंका, अध्यक्ष, फिप्पीः नई नीति की सख्त जरूरत है क्योंकि मौजूदा नीति में बहुत अस्पष्टता है। इस नए प्रस्ताव में भी टीओएफ के के संदर्भ में वही अस्पष्टता है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रस्तावना में कहा गया है कि एसएलसी के बिना कोई लाइसेंस नहीं दिया जाएगा। यह योग्य होना चाहिए; बाद में, इसे वुड बेस्ड इंडस्ट्री से छूट दी जाएगी, इसलिए इसका विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। टीओएफ से बाहर के उद्योग को लाइसेंस लेने की जरूरत होगी। टीओएफ कवरेज के लिए हमारा लक्ष्य 33 फीसदी है, लेकिन हम इससे बहुत दूर हैं। वन सर्वेक्षण के अनुसार, देश में लगभग 25 फीसदी भूमि विभिन्न प्रकार के वनों से आच्छादित है, जिसमें 19 फीसदी में वृक्षारोपण और 16 फीसदी प्राकृतिक आरक्षित वन शामिल हैं। मुझे नहीं लगता कि प्राकृतिक वने बढ़ रहे हैं, इसलिए जो भी वृक्षारोपण होगा, वह एग्रो फॉरेस्टरी से होगा, और यह समय की मांग भी है क्योंकि नकदी फसलें जरूरत से ज्यादा हैं। आज, कृषि 60 फीसदी वर्कफोर्स को रोजगार देती है और सकल घरेलू उत्पाद में केवल 16 फीसदी का योगदान करती है। अगर आने वाले समय में इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो समस्या और बढ़ जाएगी क्योंकि यह निश्चित है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आने वाली क्रांति के साथ उद्योग बढ़ेगा। पेपर, पार्टिकल बोर्ड और एमडीएफ का भौतिक आधार समान है, इसके लिए प्लांटेशन से 3 से 4 वर्षों में टिम्बर उपलब्ध हो सकती है। टिम्बर की फसल आने तक हमें छोटे किसानों को 6-7 साल तक सहायता के लिए वित्त उपलब्ध कराना चाहिए।

श्री जिकेश ठक्कर, सचिव, आईपीएमएः हमने आंध्र प्रदेश में एक प्लांट स्थापित किया, और उसके लिए, हमने छह महीने से ज्यादा समय तक जमीन की तलाश की क्योंकि वहां पहाड़ियां हैं और सरकार उन्हें आरक्षित वन मानती है। अंत में, हमें केवल निर्दिष्ट औद्योगिक क्षेत्र में ही जमीन मिली। मैं कहना चाहता हूं कि गाइडलाइन्स को तीन भागों में बांटा जाए; स्थापना, संचालन और बाजार से संबंधित उद्योग। टीओएफ के अंतर्गत वुड बेस्ड इंडस्ट्री के पास ज्यादा से ज्यादा स्पेसीज उपलब्ध होनी चाहिए। दूसरा, वन विभाग के प्रतिष्ठानों के दूरी-आधारित विनियमन को कम प्रतिबंधों के साथ सरल बनाना चाहिए, जैसा कि कर्नाटक में हुआ, जिसने यूकेलिप्टस और अन्य लेस परमिटेड स्पेसीज पर अपना प्रतिबंध हटा दिया। तीसरा, डब्ल्यूडीसी (वुड डेवलपमेंट काउन्सिल) कुछ प्रमाणन और निर्यात संबंधी दिशानिर्देश विकसित करे जिन्हें वाण् िाज्य और वित्त मंत्रालयों देखे, जैसे आयात शुल्क लगाना, इत्यादि। छह महीने पहले, हमने पेपर इंडस्ट्री और वुड बेस्ड इंडस्ट्री के बीच समन्वय की बैठकें की थीं जिन्हें हमें फिर से शुरू करने की आवश्यकता थी। दूसरा, जंगल की पारिस्थितिकी के लिए एफडीसी को काम करना चाहिए।

श्री नवल केडिया, अध्यक्ष, ऑल इंडिया सॉ मिलर्स एसोसिएशनः सॉ मिल को प्रस्तावना या दिशानिर्देशों में कहीं भी शामिल नहीं किया गया है। मेरा मानना है कि सॉ मिलें एग्रो वुड का पहला उपभोक्ता हैं। यद्यपि एक सेगमेंट है जो कहता है कि कच्चे माल के रूप में एग्रो वुड का उपयोग करने वाली मशीनों का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए, दूसरी बात, ग्रामीण सॉ मिलर्स इतने कुशल नहीं हैं कि वे एक औद्योगिक भूखंड खरीद सकें और अपनी इकाई स्थापित कर सकें, इसलिए उन्हें राहत दी जानी चाहिए।

एसएलसी की बैठकें वर्षों में नहीं हुई है, और इसे हर तीन महीने में करना सिर्फ काल्पनिक है। मुझे संदेह है कि एसएलसी लकड़ी की सस्टैनबिलिटी तय कर सकता है, क्योंकि अभी तक भी यह अच्छी तरह से काम नहीं करता है। इसके अलावा, वुड काउंसिल, आरईसी, आदि सॉ मिलर्स के लिए मैकेनिजम को जटिल बना देंगे। पूरे भारत में अग्रि वुड ट्रांजिट परमिट से मुक्त होनी चाहिए। टीओएफ पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए। मार्केटिंग को छोड़ दिया गया है; क्या हमें मार्केटिंग शुल्क देना ही पड़ेगा? वनों की उपयोगी लकड़ी का उपयोग किया जाना चाहिए क्योंकि यह प्रकृतिक रूप से भी नष्ट हो रहा है। अगर एनजीटी ने पुराने दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया तो उनके लिए नए दिशा-निर्देशों की क्या प्रासंगिकता है?

श्री सीएन पांडे, फिप्पीः इस उद्योग को सुविधा प्रदान करने के लिए किसी चीज की आवश्यकता है, यही कारण है कि वुड काउंसिल की अवधारणा आई है। दिशानिर्देश में, पैराग्राफ 7.1 को फिर से लिखा जाना चाहिए। फारेस्ट वुड पर आधारित इंडस्ट्री की गारंटी एसएलसी द्वारा केवल उन लोगों को दी जाएगी जो हार्ड वुड की उपलब्धता तक पहुंच होने का दावा करते हैं। बाकी उद्योग को लाइसेंस के तहत नहीं रखा जाना चाहिए। दूसरा, पैरा 5.3 में कहा गया है कि जुर्माने और लाइसेंस जारी करने के मामले में उद्योग से एकत्रित राशि का उपयोग वन विभाग की जरूरतों के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसका उपयोग केवल प्लांटेशन को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाना चाहिए। हमें डीपीआईआईटी की भूमिका का भी ख्याल रखना चाहिए, इसलिए हमें उन्हें केमिकल के उत्पादन (यूरिया, वृक्षारोपण, आदि) की सुविधा देकर विकास करने के लिए शामिल करना चाहिए।

श्री बीके सिंह, एडीजी, एमओईएफ - सीसी, भारत सरकारः कृषि-उत्पादित वुड बेस्ड इंडस्ट्री को उदार बनाया जाना चाहिए। आपके सुझाव पर विचार किया जाएगा और हम इसका समाधान करने का प्रयास करेंगे। वुड काउंसिल एक नियामक निकाय नहीं बल्कि एक परामर्शदात्री संस्था होगी, और यह मूल रूप से एक फैसिलिटेटिंग संस्था होगी। हमारा निर्णय किसानों को अधिक से अधिक लाभ देने पर आधारित होगा। अगर उनका रिटर्न अच्छा है तो लगभग सभी मसले हल हो जाएंगे। सरकार एक नियामक के रूप में नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर एक सुविधाप्रदाता बनने जा रही है।

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