राज्य में न्यू वुड बेस्ड इंडस्ट्री के मामले पर एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) के आदेश के खिलाफ यूपी सरकार द्वारा हाल ही में प्रस्तुत दोनों समीक्षा प्रपत्र को भी ट्रिब्यूनल ने 2 दिसंबर, 2020 को यह कहकर खारिज कर दिया कि तथ्यों में कोई दम नहीं है। गौरतलब है कि संबित फाउंडेशन और उदय एजुकेशन एंड वेलफेयर ट्रस्ट द्वारा दायर याचिका पर ट्रिब्यूनल ने 18.02. 2020 को उनके पक्ष में फैसला सुनाया था और सरकार के इससे सम्बंधित सभी लाइसेंसिंग प्रक्रिया को निरस्त कर दिया था। आदेश के खिलाफ यूपी राज्य द्वारा दो समीक्षा प्रपत्र दायर किये गए थे, जिस पर ट्रिब्यूनल ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य और प्रभावित वुड आधारित इंडस्ट्री द्वारा दिया गया प्रस्तुतिकरण पुराने दलीलों की पुनरावृत्ति है, जिसे ट्रब्यूनल द्वारा पहले से निपटाए गए है।
उल्लेखनीय है कि 22 जनवरी को यूपी राज्य की ओर से वन प्रभाग हाथरस के प्रभागीय निदेशक ने टिम्बर स्पीशीज की उपलब्धता के साथ तीन साल तक के लिए मौजूदा सॉ मिलों/वुड बेस्ड इंडस्ट्री की संख्या, क्षमता आदि का डेटा जमा कराया था। ट्रिब्यूनल ने यूपी की ओर से 18.02.2020 को दायर लिखित नोट पर भी विचार किया, जिसमें कहा गया कि इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (प्ैथ्त्) 2019 का उल्लेख है कि इसमें ‘वन और ट्री कवर‘ की वृद्धि के अनुमान है। नोट में यह भी उल्लेख किया गया था कि ट्रिब्यूनल द्वारा दी गई स्टेटस को आदेश से पहले फरवरी 2019 में 1215 उद्योगों को अंतरिम लाइसेंस दिए गए हैं, जिनमें 632 इकाइयों ने पहले ही अपनी इकाइयाँ स्थापित कर चुकी हैं।
ट्रिब्यूनल ने अपने वर्तमान और ताजा आदेश में स्पष्ट किया कि मुख्य मुद्दा लकड़ी की वास्तविक उपलब्धता थी, जिसे राज्य द्वारा कभी भी पता नहीं लगाया गया। अनुमान के आधार पर राज्य आगे बढ़ रहा था जो वैज्ञानिक नहीं था। ट्रिब्यूनल ने जरूरत के लिए उपलब्ध लकड़ियों के मूल्यांकन का निर्देश दिया था, जो कि लकड़ी की उपलब्धता के प्रजाति वार मूल्यांकन नहीं हुआ। ट्रीब्यूनल ने कहा कि निषिद्ध प्रजातियों का उपलब्ध नहीं होना, लकड़ी की उपलब्धता से बाहर रखा जाना था। दिखाया गया मानक त्रुटि स्वयं एफएसआई (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया) के दृष्टिकोण पर आधारित था। पर्यावरण मंत्रालय की राय केवल यह है कि एग्रोफोरेस्ट्री को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रस्तुत किया गया तथ्य, लकड़ी की उपलब्धता पर आधारित है, जिसका मूल्यांकन राज्य द्वारा किया गया था, जो आकलन अवैज्ञानिक पाया गया। इस प्रकार, प्रामाणिक वैज्ञानिक डेटा के बिना पर्यावरण मंत्रालय की राय को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अन्य बिंदु भी बिना किसी आधार के सिर्फ सुचना पर आधारित हैं।